संघ में संघात्मक न्यायालय (A Federal Court in a Federation)
किसी भी देश के लिए न्यायपालिका की आवश्यता होती है। प्रो० गार्नर ने कहा है, “न्याय विभाग के अभाव में एक सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है।”
खासकर, एक संघात्मक राज्य में एक स्वतंत्र और शक्तिशाली न्यायापालिका की आवश्यकता और अधिक है। जे.पी.सी. रिपोर्ट में कहा गया है कि “एक संघात्मक न्यायालय एक संघात्मक संविधान में एक आवश्यक तत्त्व है।”
संघात्मक न्यायालय की आवश्यकता
(Necessity of a Federal Court)
एक संघात्मक राज्य में संघात्मक संविधान की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से पड़ती हैं :-
(1) लिखित संविधान (A Written Constitution) :- एक संघात्मक राज्य में एक लिखित संविधान होता है जिसकी व्याख्या के लिए एक संघात्मक न्यायालय की आवश्यकता होती है जो उसका संरक्षण भी करता है।
(2) दोहरी सरकार (Double Governments) :- एक संघात्मक राज्य मे दोहरी सरकारें होती हैं-
(i) एक संघ-सरकार और
(ii) राज्य-सरकारें ।
संविधान में उसकी व्यवस्था के संरक्षण के लिए एक संघात्मक न्यायालय की आवश्यकता होती है।
(3) अधिकार-विभाजन (Division of Power):- संघ-सरकार और राज्य- सरकारों के बीच अधिकारों का विभाजन रहता है। अतः अधिकार के विभाजन से उसे विवादों के निबटारा के लिए एक संघात्मक न्यायालय की आवश्यकता होती है।
(4) सरकार के विभिन्न अंगों के बीच अधिकार विभाजन (Division of Power among the different Organs of the Government) :- सरकार के तीन अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायापालिका होती हैं जिनके बीच सरकार के अधिकारों का विभाजन रहता है। उन अंगों के गठन और अधिकार- विभाजन को होकर उठे विवादों के निबटारा के लिए भी एक संघात्मक न्यायालय आवश्यक होता है।
(5) मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) :- संघात्मक संविधान में मौलिक अधिकारों का भी उल्लेख रहता है जिनकी व्याख्या और संरक्षण के लिए भी एक संघात्मक न्यायालय की आवश्यकता होती है।
(6) परामर्श (Advice):- संघात्मक संविधान में राष्ट्राध्यक्ष को संवैधानिक और कानूनी मामले पर परामर्श देने के लिए भी एक संघात्मक न्यायालय की आवश्यकता होती है।
हर्मन फाइनर ने संयुक्त राज्य अमेरिका के संघीय न्यायालय सुप्रीम कोर्ट के बारे में कहा है कि “इसने सीमेण्ट का काम किया है जो सम्पूर्ण संघात्मक ढाँचे को दृढ कर दिया है।”
भारत में एक संघात्मक न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय
(A Federal Court in India, Supreme Court)
संविधान के द्वारा भारत भी सामान्यतः संघ है। अतएव यहाँ भी, एक संघात्मक न्यायालय का प्रावधान किया गया है जिसे सर्वोच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) कहते हैं। जिस दिन भारतीय संविधान को लागू किया गया, उसी 26 जनवरी, 1950 के दिन सर्वोच्च न्यायालय का भी उद्घाटन हुआ। भारत में न्याय- व्यवस्था की एक ही श्रृंखला है जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है। इसके पहले यहाँ एक संघात्मक न्यायालय (Federal Court) था जिसको भारत सरकार अधिनियम 1935 के द्वारा स्थापित किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (Composition of the Supreme Court)
न्यायाधीशों की संख्या (Number of the Judges):- संविधान के मूल रूप में सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) और 7 अन्य न्यायाधीशों की व्यवस्था की गई थी और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, उसका क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों का वेतन और सेवा शर्ते निर्धारित करने का अधिकार संसंद को दिया गया है। संसद के द्वारा बीच-बीच में अधिनियम द्वारा न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई गई। आजकल 1985 के संशोधन के अनुसार एक मुख्य न्यायाधीश और 25 अन्य न्यायाधीश हैं।
न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of Judges) :- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है। चूँकि राष्ट्रपति साधारण एक संवैधानिक प्रधान है, ये नियुक्तियाँ मंत्रिमंडल के परामर्श पर ही होती हैं। अन्य। न्यायाधीशों की नियुक्तियों में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श करता है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श कर सकता है जो वह आवश्यक समझे। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति वरीयता के क्रम को भी ध्यान में रखता है, लेकिन वह उसका उल्लंघन भी कर सकता है।
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में संविधान लागू के समय से लेकर 1964 यह परम्परा रही उससे वरीयता के आधार पर ही नियुक्ति हुई। लेकिन 1964 में श्री जफर इमाम को उनकी वरीयता के बावजूद मुख्य न्यायाधीश नहीं नियुक्त दिया गया, * लेकिन यह निर्णय श्री जफर के स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों के आधार पर किया गया था। लेकिन 1973 में तीन न्यायाधीशों की वरीयता का उल्लंघन कर श्री अजीत नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया था। इसके विरोध में तीनों न्यायाधीशों ने इस्तीफा कर दिया। फिर 1977 में वरीय जस्टिस श्री हंसराज खन्ना की उपेक्षा कर जस्टिस श्री मिर्जा हमीदुल्ला बेग को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया। विरोध में श्री खन्ना ने भी इस्तीफा कर दिया ।
जब मुख्य न्यायाधीश अनुपस्थित हो या किसी कारण से उसका पद रिक्त हो, तो मुख्य न्यायाधीश का कर्त्तव्य पालन करने के लिए राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के किसी वरीय न्यायाधीश को नियुक्त कर सकता है।
तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of ad hoc Judges) :- विशेष स्थिति उत्पन्न होने पर (न्यायालय की कार्यवाही की गणपूर्ति के लिए) मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है। इन तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालयों के उन न्यायाधीशों से की जाती है, जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने की योग्यता रखते हों। लेकिन * ऐसी नियुक्ति में संबधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से राष्ट्रपति के द्वारा परामर्श किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से सर्वोच्च न्यायालय से अवकाश प्राप्त (Retired) न्यायाधीश को भी आवश्यक काल के लिए नियुक्त कर सकता है।
शपथ-ग्रहण (Oath-Taking):- प्रत्येक न्यायाधीश को पद-ग्रहण करने के पूर्व राष्ट्रपति के सामने या राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किसी पदाधिकारी के सम्मुख संविधान के प्रति श्रद्धा और कर्त्तव्य पालन की शपथ लेनी पड़ती है।
न्यायाधीशो की योग्यताएँ (Qualifications of the Judges):- संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं:-
(1) वह भारत का नागरिक हो।
(2) किसी उच्च न्यायालय में अथवा दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो ।
अथवा
वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो अधिक उच्च न्यायालयों में 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो ।
अथवा
राष्ट्रपति के विचार में वह पारंगत विधिवेता (Distinguished Jurist) हो ।
न्यायाधीशों का कार्यकाल (Tenure of Judges):- सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रहता है। 65 वर्ष की आयु के बाद वह सेवा-निवृत (Retire) हो जाता है। 65 वर्ष की आयु के पहले कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित कर स्वेच्छा से त्यागपत्र दे सकता है।
पदच्युति (Removal):- किसी न्यायाधीश को 65 वर्ष की आयु से पहले भी सिद्ध कदाचार अथवा असमर्थता (Proved misbehaviour or incapacity)कारण महाभियोग (Impeachment) पर राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद् के दोनों सदनों के उपस्थित और मतदान करनेवाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है।
वेतन और भत्ते (Salary and Allawaneces): – 44 वें संशोधन के द्वारा सवोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश 10000 रू० प्रतिमाह और अन्य न्यायाधीश को 9000 रू० प्रतिमाह वेतन, बिना किराने का सरकारी मकान तथा वाहन भत्ता भी मिलता था। वित्तीय आपातकाल को छोड़ और किसी भी स्थिति में किसी न्यायाधीश के वेतन और भत्ते में कटौती नहीं की जा सकती है। अब, मुख्य न्यायाधीश को 33000 रू० और अन्य न्यायाधीश को 30000 रू० प्रतिमाह वेतन मिलता है।
न्यायाधीशों पर प्रतिबंध (Restrictions on the Judges):- सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश अवकाश-प्राप्ति के बाद भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अधिकारी के नियंत्रण में वकालत नहीं कर सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय का स्थान (Seat of the Supreme Court):- सर्वोच्च न्यायालय का स्थान दिल्ली में रक्खा गया है। किन्तु राष्ट्रपति की स्वीकृति से भारत का मुख्य न्यायाधीश समय-समय पर न्यायालय की बैठकें अन्य स्थानों पर भी आयोजित कर सकता है।
कर्मचारीगण (Establishment):- सर्वोच्च न्यायालय को अपना पृथक् कर्मचारी- वर्ग रखने और उस पर नियंत्रण रखने का अधिकार है। उन कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा मनोनीत किसी अन्य न्यायाधीश या प्राधिकारी द्वारा की जाती है। उनके वेतन, भत्ते, इत्यादि और न्यायालय के सभी प्रशासकीय व्यय भारत की संचित निधि पर पारित हैं। उनके वेतन और भत्ते भी न्यायालय द्वारा ही तय होते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की कार्यावधि (Procedure of the Supreme Court):- सर्वोच्च न्यायालय की कार्यावधि के सम्बन्ध में संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ भी हैं। इसके अलावे, संविधान भारतीय संसद् को उसके संबंध में नियम बनाने का अधिकार दिया है। अन्य बातों पर सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी राष्ट्रपति की अनुमति से नियम बना सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार
(Jurisdiction of the Supreme Court)
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को काफी विस्तृत क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है। शयद ही विश्व में किसी सर्वोच्च न्यायालय को इतना व्यापक क्षेत्राधिकार प्राप्त हो। अल्लादी कृष्ण स्वामी अय्यर ने कहा है कि “भारत के उच्चतम न्यायालय को दुनियाँ के किसी भी उच्चतम न्यायालय की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त है।” The Supreme Court of India has powers more than any other supreme court in any part of the world.”-Alladi Krishna Swami Ayyar.
भारत में न्यायापालिका की एक ही श्रृंखला है जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है जबकि अमेरिका में राज्यों के लिए अलग न्यायापालिका है।
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है :-
(1) प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction):- प्रारंमिक क्षेत्राधिकार का
अभिप्राय वह क्षेत्राधिकार है जिसमें पड़नेवाले मुकदमें प्रारंभ में ही सर्वोच्च न्यायालय में लाए जा सकते हैं।
प्रारंभिक क्षेत्राधिकार को भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(i) अनन्य प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (Exelusive Original Jurisdition) :- इसके अन्तर्गत वे मुकदमें आते हैं जिनकी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के अलावे भारत के किसी भी अन्य न्यायालय में नहीं हो सकती है। दूसरे शब्दों में, मुकदमें केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही प्रारंभ किये जा सकते हैं।
अनन्य प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकार के मुकदमें आते हैं:-
(क) केन्द्र सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच का विवाद
(ख) एक ओर केन्द्र सरकार और एक या एक से अधिक राज्य एवं दूसरी ओर एक या एक से अधिक राज्यों के बीच का विवाद ।
(ग) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच का विवाद ।
इसके अन्तर्गत पहला मुकदमा 1961 में पश्चिम बंगाल की सरकार ने दायर किया।
(ii) समवर्ती प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (Concurrent Original Juridution):- इसके अन्तर्गत वे मुकदमें आते हैं जिन पर सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा भी की जाती है। यानी ऐसे मुकदमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों में दायर हो सकते हैं और सुने जा सकते हैं।
समवर्ती प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित कुछ मुकदमें आते हैं :-
(क) मौलिक अधिकार से संबधित विवाद ।
(ख) संसद् और राज्य विधान-मंडल द्वारा निर्मित कानूनों से संबधित विवाद ।
(ग) संविधान की व्याख्या-सम्बन्धी विवाद ।
(घ) भारत स्वतंत्रता-अधिनियम, 1947 से संबधित विवाद ।
(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appleclate Jurisdiction):- भारत में न्यायपालिका की एक ही श्रृंखला है जो पिरामिड के समान है जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय विराजमान है। अतः सर्वोच्च न्यायालय अन्तिम अपीलीय न्यायालय है। भारत में ब्रिटिश शासन में यह अधिकार प्रिवी कौंसिल का था।
सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित पाँच भागों में में बाँटा जा सकता है:-
(i) संवैधानिक (Constitutional) :- सर्वोच्च न्यायालय किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील इस स्थिति में सुन सकता है जबकि उच्च
न्यायालय यह प्रमाणित कर वे कि उरा. मामले में संविधान की व्याख्या (Interpretation of the Constitution) से संबधित कानून का कोई सारमय प्रश्न (Substantial question of law) अन्तर्निहित है ।
यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाणित नहीं करे, तो सर्वोच्च न्यायालय अपील करने की विशेष अनुमति (Special Leave) दे सकता है।
(ii) दिवानी (Civil) :- मूल संविधान के अनुसार दिवानी मुकदमें में किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध तभी अपील की जा सकती थी जब
(क) उच्च न्यायालय यह प्रमाणित करके कि उस मुकदमें में कम से कम 20 हजार रुपये या अधिक रकम की संपति का प्रश्न अन्तर्गत (Involved) हो। या
(ख) वह ऐसा मुक़दमा है जिसकी अपील सर्वोच्च न्यायालय में होने योग्य हो। 1972 के संविधान संशोधन के द्वारा 20 हजार धनराशि का बन्धन हटा दिया गया। उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि उस विवाद में कानून की व्याख्या का प्रश्न अन्तर्निहित है, तो सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
(iii) फौजदारी (Criminal):- फौजदारी मामलों में उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में तभी अपील की जा सकती है:-
(क) उच्च न्यायालय ने अपील में किसी अभियुक्त के रिहा (Acquittal) के आदेश को पलटकर उसे मृत्यु-दंड दिया हो ।
(ख) उच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय से मुकदमा अपने विचारार्थ मंगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दंड दिया हो।
(ग) उच्च न्यायालय यह प्रपाणित कर दे कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय के विचार के योग्य हैं।
(iv) संक्रमण कालीन (Transitional):- ब्रिटिश काल के फेडरल कोर्ट का सारा अधिकार सर्वोच्च न्यायालय की प्राप्त है। वह उन निणयों पर अपील करने की अनुमति दे सकता है जिस पर फेडरल कोर्ट में अपील हो सकती थी ।
(v) विशिष्ट (Special):- अनुच्छेद 136 के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी भी प्रकार के निर्णय के विरूद्ध अपील की विशेष अनुमति (Speical Leave) दे सकता है। इस क्षेत्राधिकार का एकही अपवाद है। वह यह है कि सर्वोच्च न्यायालय सैनिक न्यायालय (military tribunal) के विरूद्ध अपील नहीं सुन सकता है। केवल अपवादपूर्ण परिस्थितियों में इस विशिष्ट अधिकार का प्रयोग होता है।
सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोक सभा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री सहित केन्द्र के सभी पदाधिकारियों के चुनाव-सम्बन्धी विवादों पर निर्णय करने का अधिकार।
1984 के आतंकवादी क्षेत्र (विशेष अदालतें) अध्यादेश के द्वारा केन्द्र सरकार को अधिकार है कि वह जम्मू-कश्मीर को छोड़ देश के किसी भी भाग को “आतंकवादी प्रभावित क्षेत्र” घोषित कर आतंकवादियों पर मुकदमा चलाने के लिए विशेष अदालतें स्थापित कर सकती है। इन विशेष अदालतों के निर्णय के विरूद्ध सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जाती है।
अपीलीय क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली है।
(3) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction):- संविधान के (अनुच्छेद 143 के) अनुसार राष्ट्रपति किसी कानून या तथ्य के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायाल्य से परामर्श मांग सकता है, पर राष्ट्रपति के परामर्श को मानने के लिए सर्वोच्च न्यायालय बाध्य नहीं है। अमेरीकी सर्वोच्च न्यायालय को इस प्रकार के कार्य का अधिकार नहीं है।
(4) आवृति-सम्बन्धी अधिकार (Revisional Jurisdiction):- संविधान के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को अपने निर्णयों एवं आदेशों पर फिर से विचार करने का अधिकार है। अतः वह अपने पूर्व के निर्णय को रद्द कर सकता है या उसकी नयी व्याख्या कर सकता है। जैसे 1967 में गोलक नाथ के मुकदमा में ऐसा हुआ।
(5) एक अभिलेख न्यायालय (A Court of Record):- संविधान (अनुच्छेद 129 के द्वारा) सर्वोच्च न्यायालय को एक अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। अभिलेख न्यायालय के दो आशय हैं:-
(क) इस न्यायालय के अभिलेख सभी जगह साक्षी के रूप में स्वीकार किये जाते हैं और उन्हें किसी भी न्यायालय में प्रस्तुत किये जाने पर उनकी प्रामाणिकता के विषय में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता।
(ख) यह न्यायालय “न्यायालय अवमान” (Contempt of court) के लिये किसी को दंड दे सकता है।
(6) मौलिक अधिकारों का संरक्षक 5(Protector (Protector of of the the Fund Fundamental Rights):- संविधान (अनुच्छेद 32 के द्वारा) सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का संरक्षक बनाता है। सर्वोच्च न्यायालय इसके लिए समुचित कार्रवाई करता है। सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित लेख (Writ)
या आदेश (order) जारी कर सकता हैं:-
(i) बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corps)
(ii) परमादेश (Mandamas)
(iii) प्रतिषेध (Prohibition)
(iv) अधिकार पृच्छा (Quo-warranto)
(v) उठप्रेषण (Certiorari)
(7) संविधान का संरक्षक (Guardian of the Constitution):- सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय संविधान का संरक्षक बनाया गया है। संविधान के प्रावधानों ‘के उल्लंघन करनेवाले व्यक्ति या संस्था को उसे दंडित करने का अधिकार है।
(8) न्यायिक समीक्षा का अधिकार (Power of Judicial Review):- अमेरिकी संविधान की तरह कुछ-कुछ भारत में भी सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्राप्त है। “न्यायिक समीक्षा” का अर्थ है न्यायालय द्वारा व्यवस्थपिका के बनाए कानून और कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करना । संविधान के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय संसद् या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों और राष्ट्रपति या राज्यपाल के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और उन्हें असंवैधानिक घोषित कर सकता है। लेकिन अमेरिकी संविधान के प्रतिकूल भारतीय संविधान में कुछ मामलों में संसद् की सर्वोच्चता स्वीकार की गई है जिन पर न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था नहीं है जैसे-
(क) कोई विधेयक धन-विधेयक है या नहीं, इसका निर्णय लोक-सभा करती है।
(ख) आपात कालीन स्थिति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति का निर्णय अन्तिम है।
(ग) विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure established by law) मे सर्वोच्च न्यायालय कानून के औचित्य पर विचार नहीं कर सकता है।
(9) सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में वृद्धि (Enlargement of the Juricdicition of the Supreme Court):- संविधान के (अनुच्छेद 138 और 139 के) अनुसार संसद् कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में वृद्धि कर सकती है। निम्नलिखित विषयों में ऐसा अधिकार है:-
(i) संघ सूची में वर्णित कोई विषय ।
(ii) मौलिक अधिकारों को लागू करने के अलावा किसी अन्य प्रयोजन के लिए सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश, आदेश या लेख जारी करने का अधिकार।
(iii) ऐसे विषय जो भारत सरकार और राज्य सरकार विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दे।
(iv) वैसी शक्तियाँ जो सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे कार्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक हों ।
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता
(Independence of the Supreme Court)
किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में एक स्वतंत्र. न्यायालिका का होना अत्यावश्यक है क्योंकि स्वतंत्र न्यायपालिका ही निष्पक्ष न्याय प्रदान कर सकती है। अतः भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को स्वतंत्र रखने के लिए निम्नलिखित कुछेक व्यवस्थाएँ की गई हैं:-
(1) न्यायाधीशो की नियुक्ति (Appointment of the judges) :- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है जो कि मंत्रिपरिषद्, मुख्य न्यायाधीश आदि से परामर्श करता है। जनता, संसद् या कमीशन से उनकी बहाली ठीक नहीं समझी गई।
(2) ऊँची योग्यताएँ (High Qualification) संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए ऊँची योग्यताएँ निर्धारित करता है।
(3) लम्बी कार्यावधि (Long Term):- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते हैं।
(4) कार्यावधि की सुरक्षा (Security of Ternure):- न्यायाधीशों को आसानी से पदच्युत नहीं किया जा सकता। किसी न्यायाधीश को राष्ट्रपति तभी हटा सकता है जब उस पर संसद् के दोनों सदनों के अलग-अलग उपस्थित और मतदान करनेवाले, बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित हो जाय ।
(5) पर्याप्त वेतन (Enongh Salary): प्रतिष्ठा और स्थिति बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों को पर्याप्त वेतन दिया जाता है। न्यायाधीशों को काफी वेतन, मुफ्त सरकारी आवास, यात्रा भत्ता मिलते थे। उनका भुगतान भारत की संचित निधि पर पारित होता है और उनमें कटौती वितीय आयातकाल को छोड़कर नहीं की जा सकती ।
(6) निर्भीकसापूर्वक कार्य करने का शपथ (Oath to work fearlessly):- न्यायाधीशों को पद-ग्रहण के समय निर्भीकतापूर्वक कार्य करने और संविधान की रक्षा की शपथ लेनी पड़ता है।
(7) उन्मुक्तियों (Immunities):- न्यायाधीश के समय में अपने कर्तव्य-वहन में उनके निर्णय और कार्य को आलोचना से परे रक्खा गया है। यहाँ तक कि संसद् या राज्य विधानमंडल में भी इन पर वाद-विवाद नहीं हो सकता है।
(8) अपनी कार्यप्रणाली (Own Procedure): सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को राष्ट्रपति की सहमति से अपनी कार्य प्रणाली के लिए नियम बनाने का अधिकार है।
(9) कर्मचारी-वर्ग पर नियंत्रण (Control over Personel):- सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारियों पर पूर्ण नियंत्रण है। उसके सभी कर्मचारियो की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश या उसके मनोनीत अधिकारी द्वारा की जाती है। उनकी सेवा शर्तें भी न्यायालय द्वारा निर्धारित होती है।
(10) अवकाश-प्राप्ति के बाद वकालत पर प्रतिवन्ध (Prohibition of Practive after Retirement):- संविधान के अनुसार कोई भी अवकाश-प्राप्त न्यायाधीश भारत के किसी भी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता है।
निष्कर्ष (Conclusion):- सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय संविधान का संरक्षक बनाया गया है और कहीं तक उसने अपनी गरिमा को बनाए भी रक्खा है। गिरती दल-पद्धति के कारण कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की साख गिरी है
और उनके द्वारा बहुत से ऐसे कार्य कर दिये जाते हैं जो संविधान की आत्मा के प्रतिकूल से होते हैं। ऐसी स्थिति में न्यायापालिका खासकर सर्वोच्च न्यायालय का दायित्व और भी बढ़ा है। संविधान की गरिमा और मर्यादा को बनाये रखना एकमात्र उसीका उत्तरदायित्व हो गया है।
साधारणतः यह माना जाता है कि न्यायपालिका का काम नकारात्मक (Negative) होता है। लेकिन बिगड़ती राजनीतिक माहौल में न्यायपालिका का काम मात्र नकारात्मक ही नहीं रह गया है, बल्कि उसे सकारात्मक (Positive) कदम उठाने के लिए भी बाध्य होना पड़ रहा है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि हमारे सविधान का भविष्य सर्वोच्च न्यायालय पर निर्भर है।